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नज़्म
नदामत से सुबुक-सारी जो पहले थी सो अब भी है
सदाक़त से गिराँ-बारी जो पहले थी सो अब भी है
रज़ी बदायुनी
नज़्म
ये इंसानों से इंसानों की फ़ितरत छीन लेती है
ये आशोब-ए-हलाकत फ़ित्ना-ए-इस्कंदर-ओ-दारा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दर्द-ए-उल्फ़त यूँही था रग रग में सारी हाए हाए
क्यूँ लगाया फिर वफ़ा का ज़ख़्म-ए-कारी हाए हाए
ज़े ख़े शीन
नज़्म
शाद है दिल उन का और बेहद तरब-आलूद है
रिंद-ए-बादा-नोश हैं और वा दर-ए-मय-ख़ाना है