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नज़्म
तेरी चाहत में यूँही मिटते चले जाते हैं
आतिश-ए-इश्क़ से खुलता हुआ कुंदन सा बदन
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
नज़्म
मगर क्या कीजिए जब फ़ैसला ये है मशिय्यत का
कि मैं फ़ितरत की आँखों से गिरूँ अश्क-ए-रवाँ हो कर
अहसन अहमद अश्क
नज़्म
गुल से अपनी निस्बत-ए-देरीना की खा कर क़सम
अहल-ए-दिल को इश्क़ के अंदाज़ समझाने लगीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
मर्हबा ऐ आतिश-ए-दिल आफ़रीं ऐ सोज़-ए-इश्क़
हर-नफ़स में इक हयात-ए-जाविदाँ पाता हूँ मैं