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नज़्म
फ़लक पर लुक्का-ए-अब्र-ए-सुबुक-रफ़्तार रक़्साँ था
बहिश्त-ए-हुस्न था दुनिया की बरनाई का हर ज़र्रा
शातिर हकीमी
नज़्म
फिर सर पर अब्र-ए-दौर-ए-जुनूँ है घिरा हुआ
फिर दिल में बू-ए-ज़ुल्फ़ परेशाँ है क्या करूँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
रेगज़ारों में बगूलों के सिवा कुछ भी नहीं
साया-ए-अब्र-ए-गुरेज़ाँ से मुझे क्या लेना