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नज़्म
मेरे माज़ी को अंधेरे में दबा रहने दो
मेरा माज़ी मिरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सहर-दम झुटपुटे के वक़्त रातों के अँधेरे में
कभी मेलों में नाटक-टोलियों में उन के डेरे में
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
ना-ख़ुदाओं में अब पीछे कितने बचे हैं
रौशनी और अँधेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं