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नज़्म
मालिक-ए-अर्ज़-ओ-समा को याद करता है जहाँ
हम्द गाती है ज़मीं तस्बीह पढ़ता आसमाँ
मोहम्मद असदुल्लाह
नज़्म
चुनता हूँ तिरा दर्द कि अब आँख खुली है
ऐ अर्ज़-ए-वतन तू मिरे अश्कों से धुली है
मौलवी सय्यद मुमताज़ अली
नज़्म
तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
बढ़ेगा जानिब-ए-मंज़िल ये कारवाँ इक दिन
फ़ज़ा-ए-अर्ज़-ओ-समा होगी हम-इनाँ इक दिन
मसूद अख़्तर जमाल
नज़्म
नक़्श-ए-पा तेरा रहा मंज़िल-नुमा तहज़ीब का
राहत-ए-अर्ज़-ओ-समा पिन्हाँ तिरी मंज़िल में है
अख़्तर हुसैन शाफ़ी
नज़्म
ज़ेहन ओ दिल का फ़ासला तय करते करते हाँप जाए
वुसअत-ए-अर्ज़-ओ-समा इक दीदा-ए-हैरान है
इफ़्तिख़ार आज़मी
नज़्म
अब यही कोशिश है दिल से ऐ मिरी अर्ज़-ए-वतन
तेरी पेशानी पे अब कोई शिकन आने न पाए