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नज़्म
बातिन-ए-ज़ुल्मत में हैं सूरज की किरनें बे-क़रार
रात को हंगामा-पैरा-ए-सहर पाता हूँ मैं
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
उसे उस से क्या बुझ रहा हूँ दमा-दम दमा-दम पियापे पियापे ओ दमा-दम
उसे ऐसी बातों से रग़बत नहीं है
यूसुफ़ ज़फ़र
नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
रौ में ये मौजा-ए-बातिल की बहा जाता है
फ़ज़्ल से अपने मुसलमाँ को मुसलमाँ कर दे
ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
ज़ाहिरी हालत पे हरगिज़ कर न बातिन का क़यास
ख़ूबी-ए-तन पर दलालत कर नहीं सकता लिबास