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नज़्म
तेज़-तर होती हुई मंज़िल-ब-मंज़िल दम-ब-दम
रफ़्ता रफ़्ता अपना असली रूप दिखलाती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब
आ रहे हैं जंग के बादल वो मंडलाते हुए
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग सी दिल में
ये कैसे जाम हैं साक़ी ये कैसा दौर है साक़ी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हैं यक-बारगी गूँज उठते ख़ला ओ मला के जलाजिल
जलाजिल के नग़्मे बहम ऐसे पैवस्त होते हैं जैसे
नून मीम राशिद
नज़्म
नौनिहालों की दिखा कर दम-ब-दम नश्व-ओ-नुमा
जिस्म में रूह-ए-रवाँ क्या क्या बढ़ाती है बहार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
गर्म-जोशी अपनी बा-जाम-ए-चराग़ाँ लुत्फ़ से
क्या ही रौशन कर रही है हर तरफ़ रोग़न की मय
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
चश्मक-ए-दम-ब-दम नहीं मश्क़-ए-ख़िराम-ओ-रम नहीं
मेरे ग़ज़ाल क्या हुए मेरे ख़ुतन को क्या हुआ