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नज़्म
सिदक़-ए-ख़लील भी है इश्क़ सब्र-ए-हुसैन भी है इश्क़!
म'अरका-ए-वजूद में बद्र ओ हुनैन भी है इश्क़!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बड़ी प्लेटों में जो इफ़्तार के हिस्से बनाती थीं
जो कलिमे काढ़ कर लकड़ी के फ़्रेमों में सजाती थीं
असना बद्र
नज़्म
घड़ी की टिक-टिक बोल रही है रात के शायद एक बजे हैं
बटला हाउस की एक गली में मोटे कुत्ते भौंक रहे हैं
आसिम बद्र
नज़्म
अम्मी कहतीं खेल न खेलो घर के काम में हाथ बटाओ
अब्बू कहते पढ़ने बैठो टी-वी में मत वक़्त गँवाओ
असना बद्र
नज़्म
अच्छी नज़्म की ख़्वाहिश बिल्कुल बारिश जैसी होती है
घन घन बादल गरजे बरसे धूप भले चमकीली हो
असना बद्र
नज़्म
पहले दिन के चाँद को सब लोग कहते हैं हिलाल
चौदहवीं तारीख़ हो तो बद्र कहलाता है चाँद