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नज़्म
बहार-ए-रंग-ओ-शबाब ही क्या सितारा ओ माहताब ही क्या
तमाम हस्ती झुकी हुई है, जिधर वो नज़रें झुका रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
घटाएँ घिर के आती थीं हवाएँ मुस्कुराती थीं
कि वो बन कर बहार-ए-जन्नत-ए-वीराना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
नज़ीर बनारसी
नज़्म
वाँ इशारे हैं बहक जाना ही ऐश-ए-होश है
होश में रहना यक़ीनन सख़्त नादानी है आज