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नज़्म
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
अहल-ए-ज़िंदाँ के ग़ज़बनाक ख़रोशाँ नाले
जिन की बाहोँ में फिरा करते हैं बाहें डाले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कितने तो भंग पी पी कपड़े भिगो रहे हैं
बाहें गुलों में डाले झूलों में सो रहे हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
ये किन निगाहों ने मिरे गले में बाहें डाल दीं
जहान भर के दुख से दर्द से अमाँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
कि वहशत का ये जंगल बाहें फैलाए बुलाता है
मिरा शौक़-ए-नज़र थक कर ज़मीन पर बैठ जाता है
क़मर अब्बास क़मर
नज़्म
वो नीम-ख़्वाब, शबिस्ताँ वो मख़मलीं बाहें
कहानियाँ थीं कहीं खो गई हैं मेरे नदीम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो गर्दन वो बाहें वो रानें वो पिस्ताँ
कि जिन में जुनूबी समुंदर की लहरों के तूफ़ाँ