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नज़्म
यही वो मंज़िल-ए-मक़्सूद है कि जिस के लिए
बड़े ही अज़्म से अपने सफ़र पे निकले थे
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
उठे हैं बहर-ए-दुआ कितने काँपते हुए हाथ
किस एहतिमाम से बाँधा गया है रख़्त-ए-सफ़र
मंज़ूर हुसैन शोर
नज़्म
अहल-ए-फ़न कहते हैं इस को बहर-ए-ना-पैदा-कनार
और अवामुन्नास कह के सहल इसे करते हैं प्यार
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
बहर-ए-तूफ़ानी-ए-दुनिया में हैं हम सर-गश्ता
मौज-ए-ग़म में है जहाज़ अपना थिएटर खाता