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नज़्म
तुम्हें ऐ काश बीमारी न हो दीवार पढ़ने की
अजब है 'सार्त्र' और 'रसेल' भी अख़बार पढ़ते थे
जौन एलिया
नज़्म
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारा-दारी के
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ख़रोश-आमोज़ बुलबुल हो गिरह ग़ुंचे की वा कर दे
कि तू इस गुल्सिताँ के वास्ते बाद-ए-बहारी है