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नज़्म
मैं ने इस्मत के सनम ख़ानों को मिस्मार किया
अपनी बहनों को सुपुर्द-ए-सर-ए-बाज़ार किया
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
दिमाग़ बर-सर-ए-हफ़्त-आसमाँ था देहली का
ख़िताब-ए-ख़ित्ता-ए-हिन्दोस्ताँ था देहली का
मोहम्मद अली तिशना
नज़्म
देखना आख़िर सर-ए-बाज़ार रुस्वा कर दिया
रोज़ वाइ'ज़ तुम दुआ माँगा करो औलाद की