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नज़्म
कोई शिकारी बार बार बन में हमारे आए क्यों
चौकेंगे हम हज़ार बार कोई हमें डराए क्यों
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
जाहिल को तौक़ीर है बख़्शी आलिम को बन-बास दिया है
और आलिम तुझ किज़्ब-ए-सिफ़त को महव-ए-हैरत ताक रहा है
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
हाए उन को भी ख़बर क्या कि वो इक ज़ख़्म-नसीब
ज़िंदगी के लिए निकला था जो राही बन कर
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
बिगड़ जाती है क्यूँ बन बन के हर तदबीर भारत की
बना दे या ख़ुदा बिगड़ी हुई तक़दीर भारत की