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नज़्म
तुम चाहो तो बस्ती छोड़े तुम चाहो तो दश्त बसाए
ऐ मतवालो नाक़ों वालो वर्ना इक दिन ये होगा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आज फिर तारीकियों के मिट ही जाएँगे निशाँ
दीप ख़ुशियों के जलेंगे बस्ती-ए-ग़म-ख़्वार में
ख़याल अंसारी
नज़्म
बस इक दो गाम और आगे है इस के मंज़िल-ए-इरफ़ाँ
अगर तय हो सके ये मंज़िल-ए-वहम-ओ-गुमाँ से पहले
मुनीर वाहिदी
नज़्म
हज़ार साला मसाफ़त ख़याल-ओ-वहम-ओ-गुमाँ की
और इस के बाद भी पिन्हाँ शुआ'-ए-लम-यज़ली है