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नज़्म
तसल्लुत लाख ये सय्याद-ओ-बर्क़-ओ-बाग़बाँ कर लें
नहीं मुमकिन कि हम बाहर चमन से आशियाँ कर लें
इनाम थानवी
नज़्म
दफ़'अतन दो नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ शानों से लगे
बर्क़-ए-ख़िर्मन-सोज़ जैसे आशियाने पर गिरे
बर्क़ आशियान्वी
नज़्म
दबदबे से जिन के झुकते थे सर-अफ़राज़ों के सर
जिन का लोहा मानते हैं हुक्मरान-ए-बहर-ओ-बर
बर्क़ देहलवी
नज़्म
मक़्तल में 'बर्क़' मुझ से कशीदा है तेग़-ए-यार
तड़पा रही है दर्द से बाँकी दुल्हन मुझे
बर्क़ देहलवी
नज़्म
अब्र-ए-नैसाँ का ख़वास उन की नसीहत में था
लब-ए-शीरीं से गुहर-बार गुरु-नानक थे
श्याम सुंदर लाल बर्क़
नज़्म
तेरी पेशानी पे झलकेगा मिसाल-ए-बर्क़-ए-तूर
तिफ़्ल का नाज़-ए-शराफ़त और शौहर का ग़ुरूर
जोश मलीहाबादी
नज़्म
है नज़र-अफ़रोज़ अगरचे जल्वा-ए-बर्क़-ए-तपाँ
ख़िरमन-ए-दहक़ाँ से लेकिन पूछ उस की दास्ताँ
ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
है अज़ल से मेरे पहलू में दिल-ए-मोमिन निहाद
मेरी नज़रें तोड़ देती हैं तिलिस्म-ए-बर्क़-ओ-बाद
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
वो जिन में मुल्क-ए-बर्क़-ओ-बाद तक तस्ख़ीर होता है
जहाँ इक शब में सोने का महल तामीर होता है