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नज़्म
यहाँ आसूदगी इक लफ़्ज़-ए-बे-मफ़्हूम है गोया
मक़ाम-ए-ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम है गोया
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
कभी बे-कारवाँ बे-मशअ'ल-ओ-शोर-ए-जरस चलना
क़यामत ही सही फिर भी हमें चलना ही पड़ता है
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
नज़्म
कभी बे-कारवाँ बे-मशअ'ल-ओ-शोर-ए-जरस चलना
क़यामत ही सही फिर भी हमें चलना ही पड़ता है
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
नज़्म
''कोई माशूक़ ब-सद-शौकत-ओ-नाज़ आता है
सुर्ख़ बैरक़ है समुंदर में जहाज़ आता है''
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
गुलों ने पहने हैं क्या क्या ही जोड़े रंग-ब-रंग
कि जैसे लड़के ये माशूक़ पहनते हैं तंग