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नज़्म
बे-इरादा क्यों फिरे इंसान दश्त-ए-दहर में
ज़िंदगी जो कुछ भी हो बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-दीदा नहीं
अख़तर बस्तवी
नज़्म
कूचा-ए-बिंत-ए-सरा-ए-दहर में चलिए कभी सर-सलामत आइए
और इक रक़्स-ए-फ़ना तामील दर्स-ए-बे-ख़ुदी
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
घुलता जाता है सहर के वक़्त क़ुर्स-ए-आफ़्ताब
बे-सबाती का मुअ'म्मा हो रहा है बे-नक़ाब
नख़्शब जार्चवि
नज़्म
सबात और बे-सबाती में नहीं रिश्ता अगर कोई
तसव्वुर क्यों हो बाक़ी वक़्त-ए-असली और इज़ाफ़ी का
नईम सिद्दीक़ी
नज़्म
फ़ज़ा-ए-दहर लबरेज़-ए-मसर्रत है तो मुझ को क्या
अगर दुनिया ख़राब-ए-ऐश-ओ-इशरत है तो मुझ को क्या
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
नज़्म
वो फ़राएज़ का तसलसुल नाम है जिस का हयात
जल्वा-गाहें उस की हैं लाखों जहान-ए-बे-सबात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ढूँढता हूँ अपने काशाने में वो रूह-ए-जमाल
जिस के परतव का है मज़हर ये जहान-ए-बे-सबात
सिद्दीक़ कलीम
नज़्म
नून मीम राशिद
नज़्म
मैं इस शहर-ए-ख़राबी में फ़क़ीरों की तरह दर दर फिरा बरसों
उसे गलियों में सड़कों पर