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नज़्म
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
चाहत को न कुचला जाएगा ग़ैरत को न बेचा जाएगा
साहिर लुधियानवी
नज़्म
किया है रूह-ए-अर्ज़ को आख़िर और ये ज़हरीले अफ़्कार
किस मिट्टी से उगते हैं सब जीना क्यूँ है इक बेगार
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
और अब ख़ुश हूँ चलो फ़ुर्सत मिली इस मुफ़्त की बेगार से
क्या बताऊँ मेरे अंदर से उस दम