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नज़्म
कली पे बेले की किस अदा से पड़ा है शबनम का एक मोती
नहीं ये हीरे की कील पहने कोई परी मुस्कुरा रही है
जोश मलीहाबादी
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
बरसों क्या क्या चने चबाए, क्या क्या पापड़ बेले
लहरों को हमराज़ बनाया, तूफ़ानों से खेले
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
कानों में बेले के झुमके आँखें मय के कटोरे
गोरे रुख़ पर तिल हैं या हैं फागुन के दो भँवरे
साग़र निज़ामी
नज़्म
जहाँ बेले की झाड़ी में किसी नागिन की ब़ाँबी थी
अभी तक दिल ये कहता है कि उस बस्ती में फिर जाओ