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नज़्म
ये ख़ाकी जिस्म भी उस का बहुत ही बेश-क़ीमत था
जिसे हम-जल्वा समझे थे वो पर्दा भी ग़नीमत था
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
मजीद अमजद
नज़्म
जहान-ए-इश्क़ में कुछ बेश-ओ-कम का फ़र्क़ न था
तिरी निगाह में दैर-ओ-हरम का फ़र्क़ न था
दर्शन सिंह
नज़्म
ये साकिनान-ए-फ़लक दर्द-ओ-ग़म को क्या जानें
ये ख़ाकियों के रह-ए-बेश-ओ-कम को क्या जानें
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
कौन सी ऐसी हैं ख़िदमात तिरी बेश-बहा
ख़ूँ-बहा क्यूँ लब-ओ-दंदान-ए-हसीनाँ से लिया