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नज़्म
और उस का भी बदन होता है
जिस में नन्हे नन्हे आईने याक़ूत के मानिंद बनते और बिगड़ते हैं
आतिफ़ तौक़ीर
नज़्म
कुछ टूटते हैं टूट कर कुछ नए बनते हैं
इक अजब सा नूर है इन बनते बिगड़ते ख़्वाबों में
उत्कर्ष मुसाफ़िर
नज़्म
ये रीडिंग रूम हमारा है ये पार्क हमारा अपना है
हम अपने बिगड़ते कामों को ख़ुद आप सँवारा करते हैं
सय्यदा फ़रहत
नज़्म
मकतब और मोहल्ले में ये हर बच्चे से लड़ते हैं
जिस से ख़फ़गी हो जाती है उस पर ख़ूब बिगड़ते हैं
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
वो शह-ज़ोर आज बेकस हैं जो कमज़ोरों से लड़ते थे
ख़ुदा जाने कि अहल-ए-हिल्म से क्यूँकर बिगड़ते थे