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नज़्म
संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे
बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मेलों ठेलों बाजों गांजों बारातों की धूमें थीं
आज कोई देखे तो समझे, ये तो सदा बयाबाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
हमारी साँस के चलने रुकने का तमाशा देखते हैं
तमाशा-बीनों की आँखों उस अंत की मुंतज़िर होती हैं