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नज़्म
कूचा-ए-बिंत-ए-सरा-ए-दहर में चलिए कभी सर-सलामत आइए
और इक रक़्स-ए-फ़ना तामील दर्स-ए-बे-ख़ुदी
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
मैं कि ख़ुद अपने मज़ाक़-ए-तरब-आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
आशिक़-ए-बिन्त-ए-एनब को आप कहते हैं वली
फ़ाक़ा-मस्ती में भी हर दम कर रहा है मय-कशी
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
उस का दामन था कभी दामन-ए-मरयम की तरह
उस के होंटों पे तक़द्दुस था फ़रिश्तों की तरह