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नज़्म
बस इक दो गाम और आगे है इस के मंज़िल-ए-इरफ़ाँ
अगर तय हो सके ये मंज़िल-ए-वहम-ओ-गुमाँ से पहले
मुनीर वाहिदी
नज़्म
हज़ार साला मसाफ़त ख़याल-ओ-वहम-ओ-गुमाँ की
और इस के बाद भी पिन्हाँ शुआ'-ए-लम-यज़ली है
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
नज़्म
इफ़्फ़त ज़ेबा काकोरवी
नज़्म
मेरे वहम-ओ-गुमाँ में क़लम में मिरे और क़िर्तास में
तेरा होना मुसलसल नहीं हो रहा