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नज़्म
आज कि इक रोटी की ख़ातिर कार्ड दिखाता फिरता है
पूरे कम्प को रोटी दे दे ऐसा ऐसा दहक़ाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
दावतें इनआ'म स्पीचें क़वाइ'द फ़ौज कैम्प
इज़्ज़तें ख़ुशियाँ उम्मीदें एहतियातें ए'तिबार
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
एक क़मीस चली आती है जाने कहाँ से बहती हुई
जिस में नाख़ुन गाड़ दिये हैं अब इक आबी झाड़ी ने
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
किसी कंजूस के कमरे में जा कर बैठ जाते हैं
और उस के नाम पर टुक शाप से चीज़ें मंगाते हैं