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नज़्म
जी चाहता है इक दूसरे को यूँ आठ पहर हम याद करें
आँखों में बसाएँ ख़्वाबों को और दिल में ख़याल आबाद करें
अख़्तर शीरानी
नज़्म
क्या रात थी वो जी चाहता है उस रात पे लिक्खें अफ़साना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
और कुछ देर में जब फिर मिरे तन्हा दिल को
फ़िक्र आ लेगी कि तन्हाई का क्या चारा करे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
बाग़्बान-ए-चारा-फ़र्मा से ये कहती है बहार
ज़ख़्म-ए-गुल के वास्ते तदबीर-ए-मरहम कब तलक
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कोई नग़्मे तो क्या अब मुझ से मेरा साज़ भी ले ले
जो गाना चाहता हूँ आह वो मैं गा नहीं सकता