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नज़्म
पहले दिन के चाँद को सब लोग कहते हैं हिलाल
चौदहवीं तारीख़ हो तो बद्र कहलाता है चाँद
अबरार किरतपुरी
नज़्म
चाँदनी बन के जो गर्मियों के किसी माह की चौदहवीं रात को
आसमाँ पर ज़मीं पर दिलों में निगाहों में
शहज़ाद हसन
नज़्म
ज़मीं आतिशीं गोया चौगां ख़ला में लुढ़कती हुई
यूँ ही बे-मुद्दआ रक़्स करती हुई
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
चौदहवीं की चाँदनी में ताज का वो हुस्न-ओ-रंग
चाँद है अपने हरीफ़-ए-हुस्न के जल्वे से दंग
असद अहमद मुजद्ददी असद
नज़्म
चौदहवीं की शब है लेकिन मातमी मल्बूस में लिपटी हुई है
चाँदनी भी आँसुओं में तर-ब-तर है