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नज़्म
शाख़ों पे सुर्ख़-ओ-ज़र्द शगूफ़े हैं महव-ए-ख़्वाब
ख़्वाब-ए-गिराँ से जागने वाला है आफ़्ताब
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
नज़र आया कभी दाग़-ए-सियह माह-ए-दरख़्शाँ में
किसी गुल को कभी हँसते हुए देखा बयाबाँ में
बिसमिल देहलवी
नज़्म
हम तो मजबूर थे इस दिल से कि जिस में हर दम
गर्दिश-ए-ख़ूँ से वो कोहराम बपा रहता है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तू ने की तख़्लीक़ ऐ महव-ए-ख़िराम-ए-जुस्तुजू
क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर से काएनात-ए-रंग-ओ-बू