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नज़्म
उम्र यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है कि हर गाम पे मैं
इस के दामन से लिपटता हूँ मनाता हूँ इसे
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
ये भी तिलिस्म-ए-होश-रुबा है
ज़िंदा चलते-फिरते हँसते रोते नफ़रत और मोहब्बत करते इंसाँ
वहीद अख़्तर
नज़्म
बे-शुमार आँखों को चेहरे में लगाए हुए इस्तादा है तामीर का इक नक़्श-ए-अजीब
ऐ तमद्दुन के नक़ीब!
मीराजी
नज़्म
जब दिन ढल जाता है, सूरज धरती की ओट में हो जाता है
और भिड़ों के छत्ते जैसी भिन-भिन