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नज़्म
ये जा कर कोई बज़्म-ए-ख़ूबाँ में कह दो
कि अब दर-ख़ोर-ए-बज़्म-ए-ख़ूबाँ नहीं मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दरख़ोर-ए-इल्तिफ़ात हों क्यों ये ज़लील हस्तियाँ
जिस की ख़ुदी पे छीन लीं क़ौम की ख़ुद-परस्तियाँ
अली मंज़ूर हैदराबादी
नज़्म
ज़िंदा रहने के लिए इंसान को कुछ और भी दरकार है
और इस कुछ और भी का तज़्किरा भी जुर्म है