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नज़्म
मुंतज़िर है एक तूफ़ान-ए-बला मेरे लिए
अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
गुलज़ार
नज़्म
ज़िंदगी के जितने दरवाज़े हैं मुझ पे बंद हैं
देखना हद्द-ए-नज़र से आगे बढ़ कर देखना भी जुर्म है