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नज़्म
इक लम्हे को तस्वीर में ढलना है वो ढल जाता है आख़िर
वो नग़्मा हो या गिर्या या अंदाज़-ए-तकल्लुम
बलराज कोमल
नज़्म
हर इक शय को बिल-आख़िर नूर के साँचे में ढलना है
हमें भी दो क़दम इस रौशनी के साथ चलना है