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नज़्म
इन्हीं चश्मों पे वो हर रोज़ मुँह धोने को आती थी
इन्ही टीलों के दामन में वो आज़ादाना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
उस प्रेम संदेसे को तेरे सीनों की अमानत बनना है
सीनों से कुदूरत धोने को इक मौज-ए-नदामत बनना है