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नज़्म
दरिया पुल पर चलता था पानी में रेलें चलती थीं
लंगूरों की दुम पर अंगूरों की बेलें पकती थीं
गुलज़ार
नज़्म
ये जो रिश्ता-दार था हम सब का लेकिन दूर का
मिल के मालिक ने इसे रुत्बा दिया मंसूर का
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
कुत्तों की दुम टेढ़ी क्यूँ होती है
ये चितकबरी दुनिया जिस का कोई भी किरदार नहीं है
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
मिरे वालिद ख़ुदा बख़्शे कहीं आते न जाते थे
सहर से शाम तक अमाँ के आगे दुम हिलाते थे
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
मोर अपनी दुम को फैला कर कत्थक नाच दिखाए
तोता छेड़े थप-थप तबला मैना गीत सुनाए