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नज़्म
अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे
बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
किस की नौ-मीदी पे हुज्जत है ये फ़रमान-ए-जदीद
है जिहाद इस दौर में मर्द-ए-मुसलमाँ पर हराम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
महफ़िल-ए-ज़ीस्त पे फ़रमान-ए-क़ज़ा जारी है
शहर तो शहर है गाँव पे भी बम्बारी है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दस्तूर-ए-अदालत के लिए उस का क़लम था
फ़रमान-ए-रेआ'या के लिए उस की ज़बाँ थी
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
नज़्म
अजल क्या जाने फ़र्क़ अहल-ए-हरम और दैर वालों का
बिला तफ़रीक़ शैख़-ओ-बरहमन की आज़माइश है
फ़ज़लुर्रहमान
नज़्म
सिर्फ़ तारीख़ मैं चमके मिरा फ़रमान-ए-शही
शाही दरबार में वज़ीर-ए-बा-तदबीर का मशवरा
इलियास बाबर आवान
नज़्म
बहुत समझे थे हम इस दौर की फ़िरक़ा-परस्ती को
ज़बाँ भी आज शैख़-ओ-बरहमन है हम नहीं समझे
राशिद बनारसी
नज़्म
दैर-ओ-मस्जिद छोड़ शैख़-ओ-बरहमन के वास्ते
ग़ुंचा-ओ-गुल वक़्फ़ कर अहल-ए-चमन के वास्ते
अमीन सलौनवी
नज़्म
न नाक़ूस-ए-बरहमन है न आहंग-ए-हुदा-ख़्वानी
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वो ऐसी सरज़मीं है जिस में अहल-ए-दिल अभी तक हैं
जो शैख़ ओ बरहमन उर्दू के हैं क़ाबिल अभी तक हैं