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नज़्म
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूँ तो चलूँ
अपने ग़म-ख़ाने में इक धूम मचा लूँ तो चलूँ
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
अपनी फ़ितरत की बुलंदी पे मुझे नाज़ है कब
हाँ तिरी पस्त-निगाही से गिला है मुझ को
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
तू ही बतला कि भला मेरे सिवा दुनिया में
कौन समझेगा इन आँखों के तबस्सुम का गुदाज़
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
क्या ख़बर थी ये तिरे फूल से भी नाज़ुक होंट
ज़हर में डूबेंगे कुम्हलाएँगे मुरझाएँगे
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
उन के लहजे में वो कुछ लोच वो झंकार वो रस
एक बे-क़स्द तरन्नुम के सिवा कुछ भी न था
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
वो ज़माने और थे जब तेरा ग़म सहता था मैं
जब तिरे होंटों की रंगीनी से कुछ कहता था मैं
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
ऐ मिरे शेर के नक़्क़ाद तुझे है ये गिला
कि नहीं है मिरे एहसास में सरमस्ती ओ कैफ़
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
नग़्मा-ए-पुर-कैफ़ लब पर दस्त-ए-नाज़ुक साज़ पर
मुतरिबा क़ुर्बान हो जाऊँ मैं इस अंदाज़ पर
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
ऐ गुल-ए-रंगीं-क़बा ऐ ग़ाज़ा-ए-रू-ए-बहार
तू है ख़ुद अपने जमाल-ए-हुस्न का आईना-दार