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नज़्म
काम सोने का बना है गुम्बद-ए-अफ़्लाक पर
ज़ौ-फ़गन होता है आलम इस का फ़र्श-ए-ख़ाक पर
बिस्मिल इलाहाबादी
नज़्म
ये फ़र्श-ए-ख़ाक था क़ालीन-ए-ज़र-फ़शाँ अपना
ये महर ओ माह ये तारे थे अपने घर के दिए
मख़मूर जालंधरी
नज़्म
किसी की कुछ नहीं सुनता न हँसता है न रोता है
वो बस ख़ामोश फ़र्श-ए-ख़ाक पर यूँही तड़पता है
सय्यद हशमत सुहैल
नज़्म
जाम पुर-शोर से गिर जाने दो नाकाम तमन्नाओं की मय
फ़र्श-ए-मय-ख़ाना-ए-उल्फ़त पे उलट दो साग़र
ज़ाहिदा ज़ैदी
नज़्म
लड़खड़ाती हुई फ़र्श-ओ-दर-ओ-दीवार से टकराती हुई
दिल में कहती है कि इस शम्अ' की लौ ही शायद