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नज़्म
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
हिसाब-ए-माह-ओ-साल अब तक कभी रक्खा नहीं मैं ने
किसी भी फ़स्ल का अब तक मज़ा चक्खा नहीं मैं ने
जौन एलिया
नज़्म
अस्ल जो इबारत हो पस नविश्त हो जाए
फ़स्ल-ए-गुल के आख़िर में फूल उन के खुलते हैं
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
फ़स्ल बाक़ी है तो तक़्सीम बदल सकती है
फ़स्ल की ख़ाक से क्या माँगेगा जम्हूर का हक़
साहिर लुधियानवी
नज़्म
निकलते बैठते दिनों की आहटें निगाह में
रसीले होंट फ़स्ल-ए-गुल की दास्ताँ लिए हुए