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नज़्म
लहंगे की लहरों के तले मक्खन से पाँव रक़्स में
पगडंडियों के उस तरफ़ गागर की छाँव रक़्स में
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
गिरते घरौंदे उठती उमंगें हाथों में गागर भरी
कानों में बाले चाँदी के हाले पलकें घनी खुरदुरी
महबूब ख़िज़ां
नज़्म
रुकने लगते हैं उजालों के उसी दम जैसे पाँव
जिस तरफ़ पगडंडियों पर पड़ती है गागर की छाँव
अलीम जहाँगीर
नज़्म
सभी सखियाँ घरों को ले के गागर जा चुकीं कब की
दरीचों से अब उन के रौशनी रह रह के छनती है