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नज़्म
साइक़ा है बर्क़ का तेरे दिल-ए-मुज़्तर की आग
फूँक देती है तुझे सोज़-ए-ग़म-ए-शौहर की आग
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
यही मिरी ख़्वाब-गाह-ए-इशरत यही है मेरा निगार-ख़ाना
धुएँ की रंगीन बदलियों में पका रही है जहाँ वो खाना