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नज़्म
इसी हिंडोले में 'विद्यापति' का कंठ खुला
इसी ज़मीन के थे लाल 'मीर' ओ 'ग़ालिब' भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ये किस की महकी महकी साँसें ताज़ा कर गईं दिमाग़
शबों के राज़ नूर-ए-मह की नर्मियाँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
और कोई ग़रीब और बेचारा हक़ ना-हक़ में लुट जाता है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ख़ुशा कि आज ब-फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा वो दिन आया
कि दस्त-ए-ग़ैब ने इस घर की दर-कुशाई की
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मैं ने जो ग़ैब की सरकार से माँगा वो मिला
जो अक़ीदा था मिरे दिल का हिलाए न हिला