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नज़्म
शोर-ए-नाला से दर-ए-अर्ज़-ओ-समाँ तोडूँगा
ज़ुलम-प्रवर रविश-ए-अहल-ए-जहाँ तोडूँगा
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
जो अहल-ए-दिल को बे-मंज़िल बनाने की हैं तदबीरें
मगर अहल-ए-जहाँ को क्या ख़बर
मोहम्मद तन्वीरुज़्ज़मां
नज़्म
रफ़्ता रफ़्ता हो गया अहल-ए-जहाँ से दूर मैं
बाद मुद्दत एक दिन पहुँचा जो मैं पिंडाल में
बासिर सुल्तान काज़मी
नज़्म
तेरे हर इक संग में पिन्हाँ है तेरी दास्ताँ
दीदा-ए-हैरत से तकते हैं तुझे अहल-ए-जहाँ
रहबर जौनपूरी
नज़्म
ज़माना गुज़रा कि फ़रहाद ओ क़ैस ख़त्म हुए
ये किस पे अहल-ए-जहाँ हुक्म-ए-संग-बारी है
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
कहते हैं अहल-ए-जहाँ दर्द-ए-अजल है ला-दवा
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त वक़्त के मरहम से पाता है शिफ़ा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गो गुलिस्तान-ए-जहाँ पर मेरी नज़रें कम पड़ीं
और पड़ीं भी तो ख़ुदा शाहिद ब-चश्म-ए-नम पड़ीं