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नज़्म
ये मेरा झोंपड़ा तारीक है गंदा है परागंदा है
हाँ कभी दूर दरख़्तों से परिंदों की सदा आती है
नून मीम राशिद
नज़्म
वो रोज़ काग़ज़ पे अपना चेहरा लिखता और गंदा होता
उस की औरत जो ख़ामोशी काढ़े बैठी थी
सारा शगुफ़्ता
नज़्म
कभी खेला जो कोई खेल गंदा मुझ को समझाया
कभी चुग़ली किसी की मैं ने खाई तो बुरा माना
अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
नज़्म
हर इक ग़ुंडा उन्हें घर बैठे ग़ुंडा-टेक्स देता था
तिजोरी तोड़ने का फ़न उन्हीं से मैं ने सीखा था
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
यहाँ है गहरा सन्नाटा ख़मोशी की हुकूमत है
फ़ज़ा भी ख़ुश्क है मेरी नहीं कोई रतूबत है
अब्दुल क़ादिर
नज़्म
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
गोरी देख के आगे बढ़ना सब का झूटा सच्चा 'हू'
डूबने वाली डूब गई वो घड़ा था जिस का कच्चा 'हू'