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नज़्म
सो फ़ौरन बिन्त-ए-अशअश का पिलाया पी गया होगा
वो इक लम्हे के अंदर सरमदिय्यत जी गया होगा
जौन एलिया
नज़्म
लब-ए-लालीं पे लाखा है न रुख़्सारों पे ग़ाज़ा है
जबीं-ए-नूर-अफ़्शाँ पर न झूमर है न टीका है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
काँपता फिरता है क्या रंग-ए-शफ़क़ कोहसार पर
ख़ुश-नुमा लगता है ये ग़ाज़ा तिरे रुख़्सार पर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इशरतें ख़्वाबीदा रंग-ए-ग़ाज़ा-ए-रुख़सार में
सुर्ख़ होंटों पर तबस्सुम की ज़ियाएँ जिस तरह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
साँपों के हार लाई न उस को मश्शातगी से मतलब
न माँग ग़ाज़ा न रंग रोग़न गले में साँपों
नून मीम राशिद
नज़्म
रहीन-ए-गर्दिश भी मरकज़-ए-काएनात भी हूँ
जो मैं ने देखा है वो मिरे ख़ूँ में रच गया है
ज़िया जालंधरी
नज़्म
तू और रंग-ए-ग़ाज़ा-ओ-गुलगूना-ओ-शहाब
सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
तिरी शान कौन घटा सके उसे ख़ुद ख़ुदा ने बढ़ा दिया
कि तुझे बक़ा-ए-दवाम दी तुझे मंसब-ए-शोहदा दिया
इक़बाल सुहैल
नज़्म
फीका है जिस के सामने अक्स-ए-जमाल-ए-यार
अज़्म-ए-जवाँ को मैं ने वो ग़ाज़ा अता किया