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नज़्म
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है
वो गोरे गोरे तन कि जिन्हों की थी दिल में जाए
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
कानों में बेले के झुमके आँखें मय के कटोरे
गोरे रुख़ पर तिल हैं या हैं फागुन के दो भँवरे