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नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उस नार में ऐसा रूप न था जिस रूप से दिन की धूप दबे
इस शहर में क्या क्या गोरी है महताब-रुख़े गुलनार-लबे
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
इंसान की क़िस्मत गिरने लगी अजनास के भाव चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक़ घुटने लगी भरती के दफ़ातिर बढ़ने लगे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जवानी है सुहाग उस का तबस्सुम उस का गहना है
नहीं आलूदा-ए-ज़ुल्मत सहर-दामानियाँ उस की