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नज़्म
कभी इन पंज-वक़्ता खिड़कियों से धूप के मीनार पर चढ़ कर
ये हय-अल-सस्लात-ए-दिल की गूँजें चाक करती है
आतिफ़ तौक़ीर
नज़्म
रेल की पटरियों पर उदासी की गूँजें बदन की सुरंगों से यक-लख़्त बाहर निकलने लगीं
विसिल बजने लगी
इरफ़ान शहूद
नज़्म
क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गौनें पल्ला सर-भारा
क्या गेहूँ चाँवल मोठ मटर क्या आग धुआँ और अँगारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
गूँजती है जब फ़ज़ा-ए-दश्त में बाँग-ए-रहील
रेत के टीले पे वो आहू का बे-परवा ख़िराम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जिन शहरों में गूँजी थी ग़ालिब की नवा बरसों
उन शहरों में अब उर्दू बेनाम-ओ-निशाँ ठहरी