aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
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ये दास्ताँ का सियह समुंदरकि जिस की मौजें मिरी सदा हैं
सर-ए-रहगुज़र मिरी दास्ताँ का ये पेड़ अबशब-ए-मुंजमिद शब-ए-बे-ज़बाँ
ख़ाकसारान-ए-दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ हैं हम लोगया'नी मिनजुमला-ए-साहिब-नज़राँ हैं हम लोग
ख़ित्ता-ए-अर्ज़ पे ऐसी भी जगह है कि जहाँशब में तारीक उजाले का गुमाँ होता है
मैं अगर शाइ'र था मौला तो मिरी ओहदा-बराई क्या थी आख़िरशाइ'री में मुतकफ़्फ़िल था तो ये कैसी ना-मुनासिब एहतिमाली
रात ढलते ही इक आवाज़ चली आती हैभूल भी जाओ कि मैं ने तुम्हें चाहा कब था
चुनाँचे सर-ए-शाम हम सब किसी ख़ानदान-ए-फ़रंगी से बहर-ए-मुलाक़ात निकलेयहाँ मेरा ''हम सब'' से मतलब है वो दूसरे हम-वतन और पड़ोसी कि जो मुल्क-ए-अफ़रंग की इस बड़ी
क़दम क़दम पे अक़ीदत से सर है ख़म मेराचला है सू-ए-रह-ए-मो'तबर क़लम मेरा
अब वक़्त-ए-सफ़र आ पहुँचा है आ मिल बैठें दो-चार घड़ीजब पहले-पहल तुम आए थे आग़ाज़-ए-सहर का मेला था
अभी हम ख़ूबसूरत हैंहमारे जिस्म औराक़-ए-ख़िज़ानी हो गए हैं
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स फिर वही तन्हाई हैवही यादों का चराग़ाँ वही ख़्वाबों का तिलिस्म
ये मौजूदा तरीक़े राही-ए-मुल्क-ए-अदम होंगेनई तहज़ीब होगी और नए सामाँ बहम होंगे
ऐ अलीगढ़ ऐ जवाँ-क़िस्मत दबिस्तान-ए-कुहनअक़्ल के फ़ानूस से रौशन है तेरी अंजुमन
कहा इक रोज़ सूरज नेख़ुद अपने आप से
कब से इस आतिश-ए-नफ़स काये दबिस्तान-ए-क़दीम
अजीब शब थीजो एक पल में सिमट गई थी
1सरिश्क-ए-ख़ूँ रुख़-ए-मज़मून पे चलता है तो इक रस्ता
मुद्दतों बाद फिर उभरी है तुम्हारी तस्वीरमेरे वीरान ख़यालात की गहराई में
वो दिन भी कैसे दिन थेजब तेरी पलकों के साए
आज अपनी आख़िरी मंज़िल पे है फ़िक्र-ए-रसाआज आख़िर उक़्दा-ए-ज़ौक़-ए-सुख़न वा हो गया
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