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नज़्म
सौ ज़ख़्म भी खा कर मैदाँ से हटते नहीं जुरअत-मंद कभी
वो वक़्त कभी तो आएगा जब दिल के चमन लहराएँगे
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
तो फ़ाक़े के धागों में उलझे बदन की अचानक से आँखों के पर्दे हटे
और वो आलम-ए-ख़्वाब से जाग उट्ठा